विद्या ददाति विनयं विनयाद् याति पात्रताम् ।
पात्रत्वात् धनमाप्नोति धनात् धर्मं ततः सुखम् ॥

यह एक मन में विचार था। इस विचार के आधार पर श्री गुरु रामराय उदासिन आश्रम की प्रबंधक समिति ने विचार विमर्श कर सन् १९७५ में स्वामी ब्रह्मानंद मॉडल स्कूल की स्थापना की। सन् १९७० में उपरोक्त आश्रम के स्थान पर उक्त समिति का गठन किया गया। उस समय यहाँ जंगल था। किसी भी प्रकार का निर्माण नहीं था। ब्यबस्थित आश्रम के निर्माण के पूर्व विद्यालय के निर्माण का विचार किया गया। आश्रम के पास करीब १००० वर्ग गज जमीन थी। जिसमें चारदीवारी कर तीन कमरों का निर्माण किया गया। दो अध्यापिकाओं के साथ पांच बच्चों से १ दिसंबर १९७५ को विद्यालय प्रारम्भ किया गया। फीस नगण्य मात्र तीन रूपये थी। आचार्य बहनों को मासिक 90 रूपये दिए जाते थे। कुछ ही दिन में भारत में आपात काल की स्थिति लागू हो गई। परिणाम स्वरुप विद्या भारती के द्वारा संचालित बहुत से विद्यालय बंद हो गए। जिसमें से एक विद्यालय झंडे वाला सरस्वती शिशु मंदिर के कुछ छात्र तथा अध्यापिकाएं स्वामी सर्वानंद मॉडल स्कूल में स्थापित हो गए। विद्यालय को प्रसिद्द नाम देने की दृष्टि से गुरु रामराय सरस्वती शिशु मंदिर नाम दिया गया। उस समय ३० विद्यार्थी और ९ अध्यापिकाएं थीं। विद्यालय का नाम तथा अध्यापिकाओं का श्रम एक वर्ष में १५० विद्यार्थी और १५ आचार्य के रूप में विकसित हुआ। इस प्रकार से धीरे धीरे आवश्यकता के अनुरूप शिक्षा शुल्क में भी वृद्धि करते हुए आचर्य बहनों को १५० रुपया मानधन दिया जाता था।

सन् १९७८ में विद्यालय को विधिवत प्रबंध समिति का गठन किया गया तथा समर्थ शिक्षा समिति दिल्ली से सम्बंधित किया गया। सैक्षणिक दृष्टि से समिति के नियमानुसार विद्यालय संचालित होता रहा। साथ ही साथ शिक्षक शुल्क एवं अध्यापिकाओं का मानधन भी समर्थ शिक्षा समिति के नियमानुसार निश्चित किया गया। इस समय तक आपात काल का समय समाप्त हो चूका था। आचार्य बहनों ने अपने परिश्रम से शिक्षा और संस्कार का अस्तर विकसित किया। परिणाम स्वरुप छात्रों की संख्या में अच्छी वृद्धि हुई। आवस्यकता के अनुरूप विद्यालय के भवन का सुचारु रूप से प्रथम तल का निर्माण हुआ। इस प्रकार से विद्यालय का विस्तार देते हुए शिक्षा के अतिरिक्त अन्य गतिविधियों में बालकों की अभिरुचि को बढ़ाने के लिए सांस्कृत एवं खेल सम्बन्धी गतिविधियों को प्राथमिकता दी गई। जिससे बालकों में संस्कार तथा स्वास्थ के विषय में बड़ा परिवर्तन आया। इससे विद्यालय की प्रसिद्धि हुई। पढाई की दृष्टि से विदयालय पांचवी कक्षा तक रहा।

पांचवी कक्षा के वाद जब बालक यहाँ से अन्य किसी स्कूल में जाता था तो वहां पर सहज भाव से बालक का प्रवेश हो जाता था, कारण शिक्षा, संस्कार और गतिविधियों का प्रभाव था।

इससे भी उत्शाहीत होकर आचार्य बहनों ने शिक्षा के प्रति विशेष जागृति आयी और समर्पित सेवा भाव से विद्यालय के लिए कार्य करती रही। प्रबंधन को कहने में बारे गर्व होता है कि एक परिवार के रूप में विद्यालय की आचार्य बहनों ने कार्य किया। इस बीच कभी भी आचार्य बहनों ने मासिक मानधन के लिए या वेतन बढ़ाने के लिए आग्रह नहीं किया। विद्यालय का आर्थिक दर्पण भी विद्यालय परिवार के हाथ में था। शुल्क के माध्यम से जो भी राशि प्राप्त होती थी, वह राशि आचार्य बहनों में मानधन के रूप में वितरित हो जाती थी। विद्यालय के विकास और साधनों के लिए आश्रम प्रबंध समिति आर्थिक सहयोग करती रही। यही कारण है की इन स्थापित मूल्यों के आधार पर आज तक संचालित हो रहा है।

सन् १९९० के आसपास विद्यालय की छात्रों के संख्या ६०० के पास पहुंच गई और विद्यालय का स्टाफ ३० से ३५ के बीच में बन गया।

प्रश्न यह था की अधिकांश अभिभावकों की इच्छा थी की पांचवी के बाद भी हमारे बच्चे इसी विद्यालय में पढ़ते रहें। इसके लिए प्रबंधक समिति ने आठवीं की मान्यता के लिए काफी प्रयाश किया, किन्तु अपरिहार्य साधनों के अभाव में आठवीं तक की मान्यता नहीं मिली। उन आवश्यक साधनों के जुटाने के लिए लगभग १० वर्ष लग गया और विद्यालय को एक छोटी से १००० गज की भूमि पर भब्य रूप दिया गया। परिणाम स्वरुप सन् २०११ में आठवीं कक्षा की मान्यता प्राप्त हो गई। और इस काल खंड में हर प्रकार से विद्यालय का विकास हुआ। इससे प्रेरित होकर अभिभावक गण तथा आचार्य गण की प्रबल इच्छा है की यह विद्यालय अपने संसाधनों के अनुरूप सीबीएसई से दसवीं तक की मान्यता प्राप्त करें और इसकेलिए प्रयाश चल रहा है।

उपर्युक्त हम जिस धेय के लिए विद्यालय का संचालन कर रहे हैं उस धेय की निश्चित प्राप्ति हो रही है। हमारे विद्यालय के बालक बालिकाएं विनम्र हैं, योग्य हैं , अध्धयन में सक्षम हैं तथा धर्म आधारित संस्कारित हैं। प्रबंधन समिति को अपने इस पुनीत कार्य से संतोष है।